सोमवार, 15 अगस्त 2011

बापू की बकरी बिलकुल आज़ाद है


कसाई भी बकरे की गर्दन उड़ाने से पहले

दूकान के आगे पर्दा लगा देता है,
अजनबियों को बाहर भगा देता है,

पता नहीं कौन चर्चा फैला दे
कि कसाई, वाकई कसाई होता है,
रहमदिली दूर की बात है उसके लिए
वो सिर्फ खून और गोश्त का सौदाई होता है,

खूंटे से बंधा निरीह बकरा देखता है सब,
परदे को खिंचते हुए,
लोंगो को बाहर जाते हुए,
गंडासे में धार लगते हुए,
और गंडासा लिए हाथ को
अपनी गर्दन के ऊपर उठते हुए,

सामुहिक विद्रोह की शक्ति न रखने वाला बकरा
थोड़े से चारे की लालच में अपनी जान गंवा देता है,
और अन्नदाता की खाल में छिपे भेडिए को
अपने ही गोश्त और खून का सौदाई बना देता है,

आज राजनीति और कसाई की दूकान में
कोई फर्क नहीं है ,
और राजनीति में तो
जिबह से बेहतर कोई गुडवर्क नहीं है,
विडम्बना है कि अब बकरे खुद
कसाई का चुनाव करते हैं,
और फिर बा-इत्मिनान मरते हैं,

नारियों में परदे की क्वालिटी पहचानने
और लगाने का जन्मजात गुण है,
और फिर बाहर से अन्दर कुछ न दिखे
इसमें पर्दा खुद निपुण है,

दूकान दिलाने वाले “बापू” को भी
ऊपर से पर्दा ही दिख रहा है,
उन्हें नहीं पता कि दूकान के पीछे वाली नाली से
उनकी अपनी बकरी का खून रिस रहा है,

गोपालजी