बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

बिट्टी कि विदाई

काहे मैंने बिट्टी तुझे गोदी से उतार दिया,
तेरे प्यारे बचपन को काहे खुद मार दिया,

हाथों को मल के भी       अब क्या मिलना है ,
दर्दे-विदाई को                 अश्कों से सिलना है,
तेरे भोलेपन का काहे,      मैंने न विचार किया 
       काहे मैंने बिट्टी तुझे गोदी से उतार दिया,

सूना हुआ  कांधा मेरा, सूना हुआ आँगन,
नीर बहाएँ नैना,       बोझिल है तनमन,
तुतली बोली से काहे,  तुने इतना प्यार दिया,
       काहे मैंने बिट्टी तुझे गोदी से उतार दिया,

जाए जहाँ तू बिट्टी,       सदा मुस्कराए
नैन न होयें गीले,         दिल गुनगुनाये
महकाए जाकर जो प्रभु ने, तुझे घर-द्वार दिया,
        काहे मैंने बिट्टी तुझे गोदी से उतार दिया,

इस घर से नाता अपना,    भूल न जाना
ख़ुशी हो या ग़म इस घर का, साथ निभाना
रब ने सिर्फ बेटी को दो घर का अधिकार दिया
      काहे मैंने बिट्टी तुझे गोदी से उतार दिया,

     गोपालजी 

बिट्टी कि विदाई

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

बिट्टी क़ी विदाई

बिट्टी क़ी विदाई 
बिट्टी काहे मैंने तुझे, गोदी से उतार दिया
बचपन को तेरे मैंने, काहे खुद मार दिया 

हाथों को मल के भी, अब क्या मिलना है 
दर्द भरे दिल को बस, अश्कों से  सिलना है 
तेरे भोलेपन का मैंने, काहे न विचार किया 
           बिट्टी काहे मैंने तुझे, गोदी से उतार दिया 

इस घर से नाता अपना, भूल न जाना 
नया घर मिला है, पर ए तेरा है पुराना 
जिसे तुने ही अपने हाथों से संवार दिया 
            बिट्टी काहे मैंने तुझे, गोदी से उतार दिया 

सूना लगे कंधा मेरा, सूना लगे आँगन 
अश्क बहाएं आँखें, बोझिल है तन-मन
काहे डैडी/मम्मी  कह के तुने, मुझे  इतना प्यार दिया 
             बिट्टी काहे मैंने तुझे, गोदी से उतार दिया 

जाए जहाँ तू बिट्टी, सदा मुस्कराए 
नैन न होयें गीले, दिल गुनगुनाये 
महकाए,  इश्वर ने तुझे जो घर-द्वार दिया  
            बिट्टी काहे मैंने तुझे, गोदी से उतार दिया 

                                        गोपालजी  /  मीनाक्षी   

शुक्रवार, 21 मई 2010

माँ को पत्र

माँ,
कितने गदगद थे हम उस दिन, सच में लगा था तेरे ऊपर होने वाले अत्याचार अब ख़त्म हो गए,
तू भी साँस ले सकेगी अब आज़ादी की, पर सब भ्रम निकला माँ सब झूठ .  आज अहसास हुआ कि
सत्ताएं तो बदल गयीं हमारी किस्मतें नहीं बदलीं. बदलीं हैं तो सत्ता करने वालों कि मानसिकताएं
और निश्चित रूप से उससे भी अधिक घ्रणित स्वरूपों में .
अब तो विश्वास हो चला है कि तुम शायद कभी न आज़ाद हो सकोगी, कल तक तो बाहर वालों का
अत्याचार और लूट खसूट थी, आज तो तेरे बच्चे ही तेरे आँचल को तार-तार करने पर आमादा हैं
बाहरी अक्रमंकारियों से भी अधिक क्रूरता से.
और माँ हम, निश्चित सत्य है कि हम कायर हो चुके हैं, राम कि पूजा करते हैं, कृष्ण का ध्यान
लगाते हैं, पर सब आडम्बर.  हममें आत्मबल सूख गया है, अपने सामने निरीह पर होता अत्याचार
हम बर्दाश्त करते हैं, लोकतंत्र के वासी होकर अंग्रेजों से बदतर लोगों कि गुलामी करते हैं
तुमसे आँख मिलाने का साहस नहीं है इसलिए पत्र लिख रहे हैं, हमें हमारी दशाओं पर छोड़ दो
और क्षमा करना कि हम तुम्हारे लिए कुछ न क़र सके.
  
                                                                                              गोपालजी               
            

शनिवार, 8 मई 2010

माँ

माँ को शब्दों में व्यक्त करूं
इतने मुझमें ज़ज्बात नहीं, 
भाषा, स्याही और कलम की भी 
विश्वास है ए औकात नहीं,
मेरी माँ क्या है मेरे लिए 
लिखना ही हास्यास्पद होगा
माँ साक्षात् खुद ईश्वर है
कोई ईश्वरीय सौगात नहीं,

                              गोपालजी 
           

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

छोटू है उस्ताद , ज़मीं पे ना ठहरेगा,
छू लेगा आकाश, टाप पर ही सेहरेगा,
चंचल मुस्कानों से सब के दिल को चुरा कर
शोहरत की हासिल, दौलत पे राज़ करेगा,

मंगलवार, 16 मार्च 2010

समाचार : माया की माला

बैठ गधे की पीठ बंदरिया बोली मेरे मित्र ,
लाई हूँ अख़बार आज का खबरें लिए विचित्र,   

समाचार : माया की माला

माला कर गयी गड़बड़झाला
माला में है खेल,
भारीभरकम देख के माला
कोई सका न झेल,
पहले हुई खुसुर-पुसुर,
और फिर सबने हंगामा काटा,
माला के आगे लगता है 
अपना कद सबको अब नाटा,
आपस में है तू तू-मैं मैं 
जनता को बेकूफ बनाना,
जनता सिर्फ पतीली है बस
जिसमे सब को खिड़की पकाना ,
मौसेरे भाई हैं सारे
झूठी है सब अनबन,
कोई ताज पहन हुआ राजा
कोई माला पहन टनाटन,
हम जनता हैं, किस्मत में बस  
घास है या कुछ जूठन,
लोकतंत्र ऐसा होता है
थोडा कर लें  मंथन,

गोपालजी  

दीवारों के कान

दीवारों के भी कान होते है,
आखिर कब तक खड़े-खड़े बोर होतीं 
इनके भी कुछ अरमान होते हैं,
इसलिए सुनती हैं, खूब सुनती हैं,
कुछ भी इनके बीच कहिये,
ये सुनेंगी, पर कहेंगी किसी से नहीं,
क्योंकि दीवारों के मुह नहीं होते,
कितना बड़ा दुर्भाग्य है इनका 
कि जानती तो सब हैं 
देखा सुना है सब 
पर बता नहीं सकतीं 
डरिये उनसे जिनके कान और मुह 
दोनों होते हैं,
और वही आपके गुप्त मसलों के 
सबसे बड़े दुश्मन होते हैं,
दीवारें बेचारी गवाही तक नहीं देतीं 
पर चर्चा उन्हीं के बारे में आम है,
खुराफात करते हैं दुसरे 
मुफ्त में दीवार बदनाम है,

         गोपालजी
  

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

चरित्र पर भी चढ़ते हैं. रंगों ने किया कमाल

रंग चले,  हुडदंग करें सब
फागुन ने मस्ती घोली है ,
मनो बुरा, तो मानो तुम
छेड़ेंगे, आज तो होली है,

रंग कचनार के ,रंग गुलाब के,  और रंग नीले पीले,
चिपक गए अंगों में सबके, सूखे हों या गीले,
मस्त तरंग में झटकी बुडिया, लागत छैल-छबीली है,
                 छेड़ेंगे, आज तो होली है,
बिना पिए मेरे उनके नैना, हो गए आज नशीले,
दिखा-दिखा के मस्त अदाएं, मारे बाण कटीले,
कल तक थी जो तीखी हम पर, रस से भरी वो बोली है,
                 छेड़ेंगे, आज तो होली है,
चरित्र पर भी चढ़ते हैं. रंगों ने किया कमाल,
पिछले साल जो नीले थे, इस साल हुए वो लाल,
कौन नशे में  कहाँ गिरा,  रंगों ने पोल ऐ खोली है 
                  छेड़ेंगे, आज तो होली है,
                                गोपालजी                    

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कानून का कानून

कानून के हाथ लम्बे होते हैं, इतने......ऐ
कि दू..ऊ.ऊ..र  किसी बेगुनाह की
गर्दन तक पहुँच जाते हैं,
और सामने खड़े अपराधी की
गर्दन में माला पहनाते हैं,

कानून में सिर्फ यही तो एक अच्छाई है,
कि उसने अपने पैदा होने की वज़ह
दिल से अपनाई है,
जैसे चिराग तले का अँधेरा
चिराग से ही अस्तित्व में आता है,
और उसी की छत्र-छाया में
चैन की बंसी बजाता है,

सारा जग जानता है
की क़ानून और अपराध का
चोली-दामन का साथ है,
और वास्तव में क़ानून
अपराध की सगी औलाद है,
और वैसे भी संसद में पहुंचा
ज्यादातर अपराधी ही क़ानून बनाता है,
और सिर्फ सीधा-सच्चा नागरिक उसे निभाता है,

क़ानून की रोटी भी अपराध से ही चलती है,
क़ानून के रखवालों की रंगत भी
अपराध के फलने-फूलने से ही निखरती है,
भला बताइए, जिसके ऊपर क़ानून जैसी
सर्वप्रतिष्ठित सुंदरी मेहरबान हो,
क्यों न उसके चेहरे पर चिरजयी मुस्कान हो,
क्यों न उसका बोलबाला हो,
जिसका क़ानून का ऊँचा से उंचा
ओहदेदार हमप्याला हो,

इतिहास गवाह है कि,
कानून सिर्फ अपराधियों की
हिफाज़त के लिए ही जी रहा है,
आज भी, अग्नि-परीक्षित और सच्ची
सीताओं का खून पी रहा है,

                                   गोपालजी 

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

शब्द

चाह नहीं होऊं दफ़न कफ़न संग, मिटटी में मिल जाऊं,
शव यात्रा का सत्यबोध बन, शव के संग मिट जाऊं,
बंध कर पाक किताबों में, सुंदर आसन चढ़ जाऊं,
या फिर धर्म ध्वजा पर चढ़ कर, अम्बर में लहराऊं,

कलुषित नेंताओं की मैं, जिंव्हा पर पोषण पाऊं,
देश जाति की आड़ में मानव वैमनस्य भड़काऊं,
हृदयों को उत्तेजित कर मानव हिंसा करवाऊं ,
और खुद बैठ सिंघासन पर इतिहास रचूं सुख पाऊं,

चाह नहीं नग्मों गजलों का बन के दर्द रह जाऊं,
सूर्य की आभा, चाँद का चित्रण करके मन बहलाऊं,
उड़ते पंक्षी का बन कलरव, हवा में गुम हो जाऊं,
या फिर सावन भादों की चर्चा से  तपन बुझों,

चाह नहीं किसी नगर वधु की दास्तान बन जाऊं,
उसकी नई सुबह का, बासी फुल बनूँ मुरझाऊं,
तपते यौवन से उसके मैं, निज गरिमा पिघलाऊं,
या फिर डूब सुरा-प्यालों में चिंतन शक्ति गवाऊं,

शब्द बनूँ मैं इश्वर जिससे, अविरल प्रेम झरा हो,
भाषा का मोहताज़ न हो, पर नेह की सुरभि-सरा हो,
दिल से दिल में राग जगाए, उसमें वो मदिरा हो ,
अमृत से संतृप्त हो या रब, तेरा तेज़ भरा हो,

                                    गोपालजी
                                 9455708506  

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

धन्य है हम

कितना कायरतापूर्ण, स्वार्थ और नपुंसकता से भरा है
हमारा चरित्र कि हम पतित, दुश्चरित्र और मानवता विहीन
राजनीतिज्ञों, क्षेत्रीय गुंडों और छद्म आध्यात्मिक गुरुओं
के गुलाम हो कर रह गए हैं,.और गाते फिरते हैं अपनी
शौर्य गाथा ......... इतिहास गवाह है कि हमने हजारों वर्षों
की गुलामी झेली है सच तो यह है कि आज भी झेल रहे हैं
फर्क बस इतना है कि कल तक लुटेरे बाहर के थे, आज
उनसे भी बद्दतर घरेलु, जिनको न तो देश के प्रति आस्था है
न ही मानवता के प्रति संवेदना और डरे हुए भावउन्मादी हम,
कहीं किसी पतित राजनीतिज्ञ,  किसी ठग आध्यात्मिक
गुरु,  कही किसी अनैतिक शासक  और कहीं किसी
क्षेत्रीय गुंडे के चरणों में लोट रहे है.    
विलक्षणता है हमारी,  कि हम हर परिस्थिति
में खुश हैं, शौर्य गाथा इतनी कि हर दमन को सहने
की क्षमता रखते हैं और भावुक इतने कि किसी विरले साहसी,
जो हमारे पक्ष में आवाज़ उठाता है, उसको गोली से
भून देने वाले को माफ़ कर देते हैं.

विडम्बना है या हमारा भाग्य कि हममें से ही इश्वर चन्द्र
विद्यासागर, राजा राम मोहन राय, सरदार पटेल,
दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, शंकराचार्य और महात्मा
गाँधी जैसे लोग भी पैदा हुए, जिन्होने दमन,
अनैतिकता, आध्त्यामिक आडम्बर, पारंपरिक कुरीतियों
और कुशासन के विरुद्ध अनवरत संघर्ष किया....
जिनको हम नमन तो करते है उन जैसा होने का साहस
नहीं रखते  .
धन्य है हम, और हमारी मानसिकता .

                    " गोपालजी "

   

  

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

आज की द्रौपदी

दुशासन को उसके दुस्साहस का सबक सिखाकर 
सांप सूंघ गयी सभा के बीच
विजयी अदा से द्रोपदी मुस्कराई, 
गुर्रा कर बोली 
तुम क्या चीर हरोगे
मैं खुद उतार आई,
जैसे पांच, वैसे एक सों  पांच,
कायरों के हुजूम से कैसा डर कैसी आंच,


सभा में सन्नाटा छा गया,
बाँकुरे गश खा गए 
चमचों को मज़ा आ गया, 
पराजित दुश्शासन 
सभा से भागने की ताक़ में था,
क्रुद्ध दुर्योधन 
शकुनी को पीटने की फिराक में था,
साले ने कहाँ का दांव लगा दिया,
बाज़ी तो जीती 
पर मुसीबत में फंसा दिया,     
इससे अच्छा भीम को जीत लेते,
चकाचक मालिश कराते 
मौके-बेमौके पीट लेते,


उल्टा नज़ारा देख 
ध्रतराष्ट्र ने जैसे ही कृष्ण को पुकारा, 
फुंफकारते हुए द्रौपदी  ने  
उसे झन्नाटेदार थप्पड़ मारा,
क्रुद्ध होकर बोली 
बोल किसे बुलाता है,
क्या अखबार नहीं पढता 
रोज़ हजारों नारियां निर्वस्त्र की जाती हैं
क्या कभी वो आता है,
मुर्ख तेरी शिक्षा तो निरी अधूरी है,
नहीं जानता कि क्लीन-बोर्ड करने को 
बोल्ड होना ज़रूरी है,


                               " गोपालजी "

   

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

में तेरी प्यारी बिट्टी,

मैं तेरी प्यारी बिट्टी, गोदी से उतरी क्यूँ 
पापा मेरे बोलो ना , मैं तुमसे बिछड़ी क्यूँ 


झूल-झूल गोदी में, मैं तेरी सोती थी 
ले लोगे गोदी तुम, झूठ-मूठ रोती थी
बचपन रूठ गया, किस्मत बिगरी क्यूँ 
                   पापा मेरे बोलो ना........
छोड़ के ना जाओ कहीं, जूतियाँ छिपाती थी 
पापा तेरी लाडली में, तुमको सताती थी,
घड़ियाँ वो बचपन की , पापा बोलो बिखरी क्यूँ 
                    पापा मेरे बोलो ना...........
पैंया-पैंया तुमने मुझे  चलना सिखाया 
दुनियां को समझ सकूँ इतना पढ़ाया 
पर मैं मूढ़ तेरे द्वारे से निकरी क्यूँ 
                     पापा मेरे बोलो ना..........
अब शायद पापा हमें ऐसे ही जीना है 
यादों को बचपन की सीने में सीना है
पापा पर ईश्वर की ऐसी है नगरी क्यूँ 
                      पापा मेरे बोलो ना........
डोले को यादों के दिल में दबाना है
सच के थपेड़ों में गुम हो जाना है 
सीने में सिली यादें अंखियों से निकरी क्यूँ
                      पापा मेरे बोलो ना .......


                        " गोपालजी "  

रविवार, 31 जनवरी 2010

समर्पण

धोबी की बढती बेरोज़गारी से बेखबर
उसकी मुफलिसी से बेअसर
दूसरों के मैल ढोकर
गधा पुण्य कमा रहा है,
देख सिमटता रोज़गार
धुलाई के नए यंत्रों से बेज़ार
वक़्त को गालियाँ चुभोकर
धोबी गर्त में धंसा जा रहा है,

सुखा ढला हुआ मर्द
ऊपर से गधे के पोषण का दर्द
धोबी का दिल कचोट रहा था,
पर गधा मस्त
गर्द में लोट रहा था,

बढ़ते-घटते  भार से निर्विकार
धोबी जो दे, करके दिल से स्वीकार
समर्पण की मुद्रा में
गधा धरती निहार रहा है,
गाली भी पाकर
चाबुक भी खाकर
हमसफ़र धोबी से
हर क़दम मिलाकर
मस्ती में
योनि यह जिए जा रहा है

काटो तो खून नहीं
रोटी दो जून नहीं
धंसे हुए नैन
जुगाड़ में बेचैन
खुद के लाले
गधे को पाले
धोबी हरी घास में अकल चरा रहा है,
अपने बुने जालों में
सूदियों की चालों में
नख से नाक तक फंसा जा रहा है,

फर्क है समर्पण का
दाता को तर्पण का
गधा सर झुकाए
निश्चिन्त खड़ा है,
टूटने को तैयार
झुकना पर नागवार
जकड़ा अहंकार में
धोबी अड़ा है

गधा, गधा है
मुटा रहा है   
आदमी गधा नहीं है
मरा जा रहा है

       " गोपालजी "

बुधवार, 27 जनवरी 2010

प्रभु

हमारे अंतस कि व्यथा और उस दिव्य, अलोकिक एवं सत्य कि खोज तभी समाप्त हो सकती है ज़ब हम अपने आराध्य को वापस अपने मन में स्थित कर लेंगें जिसे हमने मन से दूर मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारों में सज़ा रखा है.
                                            गोपाल जी  

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

गुरु

तर्क सदैव विधि, नियम, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक समर्पण को परास्त करता आया है नित नए मजहबों का उदय सिद्ध करता है कि उसके अनुयाइयों ने किन्हीं तर्कों  से परास्त होकर ही नए की प्रासंगिकता स्वीकार की और उसे पहले से श्रेष्ठ माना, इतिहास गवाह है की हर धर्म में परिस्थितियों एवं तर्क ने प्रभाव डाला तथा हमारी पद्वातियो और आस्थाओं तक पर आमूल-चूल परिवर्तन कर डाला.


शंकराचार्य, विवेकानंद, कबीर, बुद्ध जैसे आदि संत तर्क और शास्त्रार्थ के उपरांत ही नए मजहबों को गढ़ सके या अपना सिद्धांत प्रतिपादित कर आध्यात्म के उच्च शिखर को प्राप्त कर सके.  राजा राम मोहन राय जैसा असाधारण व्यक्तित्व तर्क के आधार पर ही सती प्रथा जैसी निर्दय एवं क्रूरतम परम्परा का अनुसरण समाप्त करा पाए 


अतः  जो आध्यात्मिक गुरु कहता है कि परमात्मा और आस्था में तर्क नहीं किया जाता, सिद्ध करता है कि उसकी अपनी आस्थाएँ कमज़ोर नीव पर खड़ी हैं. उसका उद्देश्य सत्य को जानना नहीं, अपनी कहानियों में चेलों को मस्त रखना है और माल बनाना है.


आज तक जितने भी गुरु याद किये जाते है अपने उस विलक्षण शिष्य की श्रेष्ठता के कारण ही याद किये जाते है जिसने अपनी  प्रतिभा  के बल पर नई ऊँचाइयों को हासिल किया तथा अपने साथ-साथ अपने गुरु का नाम भी रौशन किया. अगर गुरु में विशिष्टता होती तो उसका हर शिष्य पर्मात्मप्राप्त और श्रेष्ठ होता. विलक्षणता तो कबीर, कृष्ण और मीरा में थी जिन्होंने रामानंद, संदीपन और रैदास को अमर कर दिया.


अतः डर त्यागो और तर्क करो गुरुओं से आध्यात्म पर, परमेश्वर की प्राप्ति पर और मुक्त हो जाओ छद्म गुरुओं के चुंगुल से जो अपने वाक्जाल से तुम्हें बहला कर तुम्हारी माया लूटने के लिए ही दूकान खोले है .  


स्वयं सोंचिये जो गुरु परमात्मप्राप्ति जैसा असीम सुख छोड़कर चेलों में लिप्त हो क्या उसे परमात्मा प्राप्त है ?


                                                         गोपालजी  




शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

सत्य का धरातल

दुर्योधन, उदास और क्लांत 
मन में झंझावत, लब शांत ,
नहीं दे सका सुकूं पत्नी का आलिंगन ,
नर्तकियों का सुर-वंदन,  
मनोबल है जिंदा, पर टूटा है विश्वास,
क्या इश्वर,
वास्तव में आज नहीं है हमारे पास,
यदि है
तो क्या हो गयी भूल,
क्यों चुभ रहा है हर रोज़ 
एक नयी हार का शूल,     
मैंने तो मात्र
अपने पिता के अपमान का प्रतिघात किया,
सेना की विशालता से भी सिद्ध है 
अधिकों ने मेरा साथ दिया,  
अपनी पत्नी द्यूत में हारने वाले धूर्तों को 
कृष्ण का सरक्षण,
बलराम के आदेश के विरुद्ध 
पांडवों की रक्षा प्रतिक्षण ,
भविष्य द्रष्टा कहते थे ऐसा कलयुग में होना है,
असत्य को विजयी सत्य को धरातल खोना है,
लगता है कलयुग अभी से ही आ गया
वर्ना ऐसा न होता,
असत्य यूँ न पूजा जता 
सत्य न अपना शौर्य खोता,


"   दूर कहीं घड़ियाल घंटा बजा रहा है ,
    मुर्दा हुए जिन्दों को शायद बता रहा है .
    नैतिक पतन की चादरें लेटे हो ओढ़ कर, 
    सहमें डरे से सोये हो घुटनों को मोड़कर,
    गर्तों की राह जाओ ना तुम सत्य छोड़कर, 
    वर्ना समय ही सत्य है रख देगा तोड़कर ,
    हर गम को हर ख़ुशी को निर्विकार परखना,
    ग़र संग चले चिर-नींद तक चिर-सत्य समझना ,  "  


                       " गोपाल जी "  

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

बेटे की चिठ्ठी

मम्मी, मेरी चिंता मत करना
डैडी से भी कहना, न लें टेंशन मेरी फिक्र से,
उलझाये रखना उनको, बेवजह के ज़िक्र से,

माम, तुमने कहतीं थीं ,
मैं गोद में,  तुम्हारे आँचल को पकड़
तुम्हें ही देखता रहता था
आँचल मुठ्ठी से कब छूट गया
तुमने बताया नहीं,
मेरे तुम्हारे बीच कब ऐ जहाँ आ गया
कभी समझाया नहीं,

आज फिर, तुम्हारे आँचल को पकड़
तुम्हारी गोद में
पहले जैसे निश्चिन्त
सोने का मन करता है
लेकिन तुम पास हो तब ना,
और अब लगता है यह सपना,

बागवां तो खाद-पानी देकर
आस बाँध कर
निश्चिन्त हो जाता है,
बीज को ही संघर्ष कर
अपनी जड़ें ज़माना होता है,
कौन चाहता है अपनी जड़ों दूर रहना,
लेकिन यह नियति है
हंस कर या रोकर
पड़ता ही है दर्द सहना,

माम अपने अश्कों से कहना,
प्लीज़ अब न बहना,
मेरा भी दिल कमज़ोर हो जाता है,
लाख रोकने के बावजूद
आँख के कोने से ढलक कर आंसू
की-बोर्ड को गीला कर ही जाता है,
                - तुम्हारा अस्तित्व-

            
        " गोपालजी "


बुधवार, 20 जनवरी 2010

बेदर्द से शिकायत

ज़मीं के होते होंगे, पर समंदर बिन किनारे हैं
और उस पर डोलती नैया पे हम तेरे सहारे हैं
सहम कर करते हैं फरियाद, हर तूफां की आहट पर
अभी प्यारा न कर हमको, ख़ुदा हम तेरे प्यारे हैं .
                      ज़मीं के होते होंगे................
बहा के थक चुके आंसू, ऐ ज़ालिम अब रहम कर दे
इन्तहां हो चुकी, कहरों को अपने अब ख़तम कर दे
ज़ख्म पे ज़ख्म, और उसपे ज़ख्म देके क्या मिला तुझको
रहम बेचारगी पर कर हमारी, हम बेचारे हैं
                     ज़मीं के होते होंगे ..........
सितमगर नाम है तेरा, ऐ पुख्ता हो चूका सब पर
बाँट के दर्द सोता तू है, रौशन  हो चूका सब पर
और उस पर भी सितम ऐ है, कि हम तुमसे ही रोते हैं
क्योंकि तू बन गया दिलवर, और हम सब दिल के मारे हैं
                    ज़मीं के होते होंगे...........
ज़रा सा मोड़ दे कश्ती, जिधर खुशियों कि महफ़िल है
न ख्वाईश ऐ मसल, आखिर हमारा दिल भी तो दिल है
न बैठा तू फ़लक पर, या ख़ुदा थोड़ी ज़मीं तो दे
नज़र आते हैं वाकई, हम सभी को दिन में तारे हैं
                    ज़मीं के होते होंगे.....................


                          " गोपालजी "  

सोमवार, 18 जनवरी 2010

ख़फ़ा भाई

मै और मेरा प्यारा भाई, एक थाली में खाते थे,
सुख दुःख में हम, उस भाई के पहलू में सो जाते थे,
आज ख़फ़ा है भाई हमसे, दिल घुट-घुट कर रोता है,
खो गए दिन ज़ब मेरे आंसू, उन आँखों से आते थे,

खेले थे हम इन गलियों में, तब ना कोई  बंधन था,
उसकी धड़कन से ही, मेरे दिल में भी स्पंदन था ,
सोंचें ग़र ईमान हम इस ख़ुदा को भी नाजिर करके ,
बेरहम ज़ुदाई लम्हों में, दोनों के दिल में क्रंदन था ,

जुदा भाई हमसे मिलने को, दिल ही दिल में तड़प रहा,
जाएं मना लें हम उसको, बस इस मकसद से झड़प रहा,
मानें ख़ता हुई दोनों से, और अब अमन बहाल करें
माफ़ करें हम एक दूजे को, पहले  जैसा प्यार करें,

                                 " गोपालजी "

शनिवार, 16 जनवरी 2010

परिवर्तन

धरा, प्रकृति और आस्था
परिवर्तनशील अपनी उत्पत्ति से ही
तथा हम मात्र मूल्यों एवं संस्कारों के
परिवर्तन से उत्तेजित और कुंठाग्रस्त,
अपनी सम्पूर्ण शक्ति से प्रतिरोध के उपरांत भी
पराजित और पस्त,

क्या समझते हैं हम अपने आपको
ब्रम्ह के नियंता के समक्ष   ?
उस विराट के समकक्ष  ?

अहंकार ही तो है
हमें  चुटकी भर ज्ञान का
अपने अस्तित्व का
जो मिटा देता हँ हमारा ही अस्तित्व ,
और अनावृत कर देता है
हमारा विद्रूपित व्यक्तित्व ,

क्योंकि परिवर्तन
नष्ट कर डालता है अवरोधों को
और निकल जाता है नदी के प्रवाह की तरह
स्वच्छंद, उन्मुक्त, अविरल और आल्हादित ,
और तना रहता है सदैव
पर्वतों की तरह हिम से आच्छादित ,

                                     " गोपालजी "
  

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

चिंकी और चंदा मामा

जेट से चिंकी चाँद पे पहुंचा
बोला चंदा मामा
यहाँ पे बैठे ठिठुर रहे हो
चलो बुलाते नाना ,

ज़ब से घर से भाग के आये
मुह छिपाए फिरते हो ,
झांकते रहते इधर उधर से
नहि एक ज़गह टिकते हो ,

चलो ले चलो थाली अपनी
गर खो गयी तो छोडो,
थाली- प्याली के चक्कर में
घर से मुख ना मोड़ो ,

तनिक ठहर कर रोब  गाँठ कर
फिर से चिंकी बोला ,
नंगे क्यों हो, कहाँ गया
नानी का दिया झिंगोला ,

कोई उत्तर ना मिलने पर
चिंकी भी झुंझलाया ,
बोला मामा हठ ने तुम्हारे
तुमसे घर छुड्वाया ,

            " गोपाल जी "          

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

एक था राजा एक थी रानी

सच है सुन लो मेरी कहानी,
एक था राजा एक थी रानी .
राजा भी वही था वही उसकी रानी,
पर अब नहीं थी उनकी जवानी

दिन जीवन में ऐसे भी आये
साया था जिन पर, हुए उनके साए
लुटा दी थी जिन पर जीवन की पूंजी
पानी पिलाने तक से वो कतराए
प्यास बुझाता था आँखों का पानी ......
                   एक था राजा ..............
प्यार और ममता से जो बाग़ सींचा
मुश्किलों में जिनको अपने कलेजे से भींचा
धड्काया दिल जिनका सांसों से अपनी
उन्हीं दिल के टुकड़ों ने छीना बगीचा
निशां उनके धो रही थी, उनकी निशानी .......
                   एक था राजा ...............
चुकी हुई जिंदगी थी, थकी हुई सांसें
अपनों से दूर दोनों अकेले में खांसें,
वारिसों ने बाँट लिया था असबाब उनका
इंतज़ार करते थे कब निकलें फांसें,
और एक दिन वो आया मरे राजा रानी .......
                   एक था राजा रानी ..........
आज भी है जिंदा उनकी कहानी
देखते और दोहराते हैं हम यही कहानी ......
                    एक था राजा ................

बुधवार, 13 जनवरी 2010

सरस्वती वंदना


सरस्वती वंदना

जय माँ वीनावादिनी, हे माँ, हर दिल मैं खुशबू भर दे ,
मुस्काए हर जीवन माते, सबको जीभर अम्बर दे .

आये हैं हम शरण में  तेरी, अभिलाषा में  लेखन की ,
भाव व  चिंतन के संग  हमको शक्ति भी दो सच देखन की
डर से सत्य न ठुकरा  दें हम, हे माँ निडर हमें कर दे
                                             हे माँ ...........                            
विचलित ना हो जाएँ पथ से, संघर्षों में  घबरा कर
मन का बल कहि टूट न जाये, अपनी ही पीड़ा से डरकर
शक्ति और सामर्थ्य भी देना जो लेखन को संबल दे
                                             हे माँ ...............
अपनी वेदना और सुखों से सिर्फ रंगें ना प्रष्ठों को
लेखन में  माँ हम छलकाएं मानवता के कष्टों को
जन जन के माँ काम जो आये वह लेखन मुझमें भर दे
                                             हे माँ ...............
दी है लेखनी, दी है स्याही, तुने  ही माँ भाव दिए
भाषा, बुद्धि, शब्द, चिंतन और सर्वग्राम्ह्य उदगार दिए
तेरी प्रेरणा, तुझमें निष्ठां सदा रहे मुझको वर दे
                                             हे माँ ..............
 
                                        गोपाल जी ............

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

कल का सच

तहस-नहस अपने उपवन को, हमने ही कर डाला है ,
काटा है खुद उस उपवन को, जिसने हमको पाला है .

कटते वृक्षों का रुदन शब्द हमने न सुना, पर था तो वो ,
विस्तीर्ण गगन सा फैला वन, काटा हमने कल था वो जो .
 कल -कल करतीं बहती नदियाँ, हमने ही प्रदूषित कर डालीं ,
उन्मुक्त पवन का अल्हड़पन, कर दिया प्रदूषित था वो जो .

अपने ही खुनी खंज़र से, इस प्रकृति पे हमने वार किये ,
क्रूरतम प्रहारों पर उसने , माँ  बनकर अपने  ओठ सिये .

रिसते घावों की व्याकुलता , सूनामी से वह व्यक्त करे ,
नव-सृजन को वह भी आतुर है, मानवता से अभिव्यक्त करे .

हम मात्र द्रवित ना हो जाएँ , कष्टों से सहोदर के अपने ,
उस गर्भ का दर्द भी पहचाने , जो पूर्ण करे सबके सपने .

कभी भुज तो कभी सुनामी है , इस धरा की पीड़ा की भाषा ,
नवरचना का संकेत है ऐ,  नव-सृजन की आतुर अभिलाषा .
वर्ना वह दिन अब दूर नहीं जब प्रलय से हम मिट जायेंगे ,
हम हों सचेत बस कम्पन से जब हिले धरा तोला-माशा .

                                                  गोपालजी .......