रविवार, 28 फ़रवरी 2010

चरित्र पर भी चढ़ते हैं. रंगों ने किया कमाल

रंग चले,  हुडदंग करें सब
फागुन ने मस्ती घोली है ,
मनो बुरा, तो मानो तुम
छेड़ेंगे, आज तो होली है,

रंग कचनार के ,रंग गुलाब के,  और रंग नीले पीले,
चिपक गए अंगों में सबके, सूखे हों या गीले,
मस्त तरंग में झटकी बुडिया, लागत छैल-छबीली है,
                 छेड़ेंगे, आज तो होली है,
बिना पिए मेरे उनके नैना, हो गए आज नशीले,
दिखा-दिखा के मस्त अदाएं, मारे बाण कटीले,
कल तक थी जो तीखी हम पर, रस से भरी वो बोली है,
                 छेड़ेंगे, आज तो होली है,
चरित्र पर भी चढ़ते हैं. रंगों ने किया कमाल,
पिछले साल जो नीले थे, इस साल हुए वो लाल,
कौन नशे में  कहाँ गिरा,  रंगों ने पोल ऐ खोली है 
                  छेड़ेंगे, आज तो होली है,
                                गोपालजी                    

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कानून का कानून

कानून के हाथ लम्बे होते हैं, इतने......ऐ
कि दू..ऊ.ऊ..र  किसी बेगुनाह की
गर्दन तक पहुँच जाते हैं,
और सामने खड़े अपराधी की
गर्दन में माला पहनाते हैं,

कानून में सिर्फ यही तो एक अच्छाई है,
कि उसने अपने पैदा होने की वज़ह
दिल से अपनाई है,
जैसे चिराग तले का अँधेरा
चिराग से ही अस्तित्व में आता है,
और उसी की छत्र-छाया में
चैन की बंसी बजाता है,

सारा जग जानता है
की क़ानून और अपराध का
चोली-दामन का साथ है,
और वास्तव में क़ानून
अपराध की सगी औलाद है,
और वैसे भी संसद में पहुंचा
ज्यादातर अपराधी ही क़ानून बनाता है,
और सिर्फ सीधा-सच्चा नागरिक उसे निभाता है,

क़ानून की रोटी भी अपराध से ही चलती है,
क़ानून के रखवालों की रंगत भी
अपराध के फलने-फूलने से ही निखरती है,
भला बताइए, जिसके ऊपर क़ानून जैसी
सर्वप्रतिष्ठित सुंदरी मेहरबान हो,
क्यों न उसके चेहरे पर चिरजयी मुस्कान हो,
क्यों न उसका बोलबाला हो,
जिसका क़ानून का ऊँचा से उंचा
ओहदेदार हमप्याला हो,

इतिहास गवाह है कि,
कानून सिर्फ अपराधियों की
हिफाज़त के लिए ही जी रहा है,
आज भी, अग्नि-परीक्षित और सच्ची
सीताओं का खून पी रहा है,

                                   गोपालजी 

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

शब्द

चाह नहीं होऊं दफ़न कफ़न संग, मिटटी में मिल जाऊं,
शव यात्रा का सत्यबोध बन, शव के संग मिट जाऊं,
बंध कर पाक किताबों में, सुंदर आसन चढ़ जाऊं,
या फिर धर्म ध्वजा पर चढ़ कर, अम्बर में लहराऊं,

कलुषित नेंताओं की मैं, जिंव्हा पर पोषण पाऊं,
देश जाति की आड़ में मानव वैमनस्य भड़काऊं,
हृदयों को उत्तेजित कर मानव हिंसा करवाऊं ,
और खुद बैठ सिंघासन पर इतिहास रचूं सुख पाऊं,

चाह नहीं नग्मों गजलों का बन के दर्द रह जाऊं,
सूर्य की आभा, चाँद का चित्रण करके मन बहलाऊं,
उड़ते पंक्षी का बन कलरव, हवा में गुम हो जाऊं,
या फिर सावन भादों की चर्चा से  तपन बुझों,

चाह नहीं किसी नगर वधु की दास्तान बन जाऊं,
उसकी नई सुबह का, बासी फुल बनूँ मुरझाऊं,
तपते यौवन से उसके मैं, निज गरिमा पिघलाऊं,
या फिर डूब सुरा-प्यालों में चिंतन शक्ति गवाऊं,

शब्द बनूँ मैं इश्वर जिससे, अविरल प्रेम झरा हो,
भाषा का मोहताज़ न हो, पर नेह की सुरभि-सरा हो,
दिल से दिल में राग जगाए, उसमें वो मदिरा हो ,
अमृत से संतृप्त हो या रब, तेरा तेज़ भरा हो,

                                    गोपालजी
                                 9455708506  

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

धन्य है हम

कितना कायरतापूर्ण, स्वार्थ और नपुंसकता से भरा है
हमारा चरित्र कि हम पतित, दुश्चरित्र और मानवता विहीन
राजनीतिज्ञों, क्षेत्रीय गुंडों और छद्म आध्यात्मिक गुरुओं
के गुलाम हो कर रह गए हैं,.और गाते फिरते हैं अपनी
शौर्य गाथा ......... इतिहास गवाह है कि हमने हजारों वर्षों
की गुलामी झेली है सच तो यह है कि आज भी झेल रहे हैं
फर्क बस इतना है कि कल तक लुटेरे बाहर के थे, आज
उनसे भी बद्दतर घरेलु, जिनको न तो देश के प्रति आस्था है
न ही मानवता के प्रति संवेदना और डरे हुए भावउन्मादी हम,
कहीं किसी पतित राजनीतिज्ञ,  किसी ठग आध्यात्मिक
गुरु,  कही किसी अनैतिक शासक  और कहीं किसी
क्षेत्रीय गुंडे के चरणों में लोट रहे है.    
विलक्षणता है हमारी,  कि हम हर परिस्थिति
में खुश हैं, शौर्य गाथा इतनी कि हर दमन को सहने
की क्षमता रखते हैं और भावुक इतने कि किसी विरले साहसी,
जो हमारे पक्ष में आवाज़ उठाता है, उसको गोली से
भून देने वाले को माफ़ कर देते हैं.

विडम्बना है या हमारा भाग्य कि हममें से ही इश्वर चन्द्र
विद्यासागर, राजा राम मोहन राय, सरदार पटेल,
दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, शंकराचार्य और महात्मा
गाँधी जैसे लोग भी पैदा हुए, जिन्होने दमन,
अनैतिकता, आध्त्यामिक आडम्बर, पारंपरिक कुरीतियों
और कुशासन के विरुद्ध अनवरत संघर्ष किया....
जिनको हम नमन तो करते है उन जैसा होने का साहस
नहीं रखते  .
धन्य है हम, और हमारी मानसिकता .

                    " गोपालजी "

   

  

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

आज की द्रौपदी

दुशासन को उसके दुस्साहस का सबक सिखाकर 
सांप सूंघ गयी सभा के बीच
विजयी अदा से द्रोपदी मुस्कराई, 
गुर्रा कर बोली 
तुम क्या चीर हरोगे
मैं खुद उतार आई,
जैसे पांच, वैसे एक सों  पांच,
कायरों के हुजूम से कैसा डर कैसी आंच,


सभा में सन्नाटा छा गया,
बाँकुरे गश खा गए 
चमचों को मज़ा आ गया, 
पराजित दुश्शासन 
सभा से भागने की ताक़ में था,
क्रुद्ध दुर्योधन 
शकुनी को पीटने की फिराक में था,
साले ने कहाँ का दांव लगा दिया,
बाज़ी तो जीती 
पर मुसीबत में फंसा दिया,     
इससे अच्छा भीम को जीत लेते,
चकाचक मालिश कराते 
मौके-बेमौके पीट लेते,


उल्टा नज़ारा देख 
ध्रतराष्ट्र ने जैसे ही कृष्ण को पुकारा, 
फुंफकारते हुए द्रौपदी  ने  
उसे झन्नाटेदार थप्पड़ मारा,
क्रुद्ध होकर बोली 
बोल किसे बुलाता है,
क्या अखबार नहीं पढता 
रोज़ हजारों नारियां निर्वस्त्र की जाती हैं
क्या कभी वो आता है,
मुर्ख तेरी शिक्षा तो निरी अधूरी है,
नहीं जानता कि क्लीन-बोर्ड करने को 
बोल्ड होना ज़रूरी है,


                               " गोपालजी "

   

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

में तेरी प्यारी बिट्टी,

मैं तेरी प्यारी बिट्टी, गोदी से उतरी क्यूँ 
पापा मेरे बोलो ना , मैं तुमसे बिछड़ी क्यूँ 


झूल-झूल गोदी में, मैं तेरी सोती थी 
ले लोगे गोदी तुम, झूठ-मूठ रोती थी
बचपन रूठ गया, किस्मत बिगरी क्यूँ 
                   पापा मेरे बोलो ना........
छोड़ के ना जाओ कहीं, जूतियाँ छिपाती थी 
पापा तेरी लाडली में, तुमको सताती थी,
घड़ियाँ वो बचपन की , पापा बोलो बिखरी क्यूँ 
                    पापा मेरे बोलो ना...........
पैंया-पैंया तुमने मुझे  चलना सिखाया 
दुनियां को समझ सकूँ इतना पढ़ाया 
पर मैं मूढ़ तेरे द्वारे से निकरी क्यूँ 
                     पापा मेरे बोलो ना..........
अब शायद पापा हमें ऐसे ही जीना है 
यादों को बचपन की सीने में सीना है
पापा पर ईश्वर की ऐसी है नगरी क्यूँ 
                      पापा मेरे बोलो ना........
डोले को यादों के दिल में दबाना है
सच के थपेड़ों में गुम हो जाना है 
सीने में सिली यादें अंखियों से निकरी क्यूँ
                      पापा मेरे बोलो ना .......


                        " गोपालजी "