माँ,
कितने गदगद थे हम उस दिन, सच में लगा था तेरे ऊपर होने वाले अत्याचार अब ख़त्म हो गए,
तू भी साँस ले सकेगी अब आज़ादी की, पर सब भ्रम निकला माँ सब झूठ . आज अहसास हुआ कि
सत्ताएं तो बदल गयीं हमारी किस्मतें नहीं बदलीं. बदलीं हैं तो सत्ता करने वालों कि मानसिकताएं
और निश्चित रूप से उससे भी अधिक घ्रणित स्वरूपों में .
अब तो विश्वास हो चला है कि तुम शायद कभी न आज़ाद हो सकोगी, कल तक तो बाहर वालों का
अत्याचार और लूट खसूट थी, आज तो तेरे बच्चे ही तेरे आँचल को तार-तार करने पर आमादा हैं
बाहरी अक्रमंकारियों से भी अधिक क्रूरता से.
और माँ हम, निश्चित सत्य है कि हम कायर हो चुके हैं, राम कि पूजा करते हैं, कृष्ण का ध्यान
लगाते हैं, पर सब आडम्बर. हममें आत्मबल सूख गया है, अपने सामने निरीह पर होता अत्याचार
हम बर्दाश्त करते हैं, लोकतंत्र के वासी होकर अंग्रेजों से बदतर लोगों कि गुलामी करते हैं
तुमसे आँख मिलाने का साहस नहीं है इसलिए पत्र लिख रहे हैं, हमें हमारी दशाओं पर छोड़ दो
और क्षमा करना कि हम तुम्हारे लिए कुछ न क़र सके.
गोपालजी
The blog consists my thoughts, bhajans, vyangs, devoted ghazals, my attainments from life and overall a logical view with traditions and all other aspects of life i.e. culture, emotionals, relationship, faith and devotions etc.
शुक्रवार, 21 मई 2010
शनिवार, 8 मई 2010
माँ
माँ को शब्दों में व्यक्त करूं
इतने मुझमें ज़ज्बात नहीं,
भाषा, स्याही और कलम की भी
विश्वास है ए औकात नहीं,
मेरी माँ क्या है मेरे लिए
लिखना ही हास्यास्पद होगा
माँ साक्षात् खुद ईश्वर है
कोई ईश्वरीय सौगात नहीं,
गोपालजी
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