मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

शब्द

चाह नहीं होऊं दफ़न कफ़न संग, मिटटी में मिल जाऊं,
शव यात्रा का सत्यबोध बन, शव के संग मिट जाऊं,
बंध कर पाक किताबों में, सुंदर आसन चढ़ जाऊं,
या फिर धर्म ध्वजा पर चढ़ कर, अम्बर में लहराऊं,

कलुषित नेंताओं की मैं, जिंव्हा पर पोषण पाऊं,
देश जाति की आड़ में मानव वैमनस्य भड़काऊं,
हृदयों को उत्तेजित कर मानव हिंसा करवाऊं ,
और खुद बैठ सिंघासन पर इतिहास रचूं सुख पाऊं,

चाह नहीं नग्मों गजलों का बन के दर्द रह जाऊं,
सूर्य की आभा, चाँद का चित्रण करके मन बहलाऊं,
उड़ते पंक्षी का बन कलरव, हवा में गुम हो जाऊं,
या फिर सावन भादों की चर्चा से  तपन बुझों,

चाह नहीं किसी नगर वधु की दास्तान बन जाऊं,
उसकी नई सुबह का, बासी फुल बनूँ मुरझाऊं,
तपते यौवन से उसके मैं, निज गरिमा पिघलाऊं,
या फिर डूब सुरा-प्यालों में चिंतन शक्ति गवाऊं,

शब्द बनूँ मैं इश्वर जिससे, अविरल प्रेम झरा हो,
भाषा का मोहताज़ न हो, पर नेह की सुरभि-सरा हो,
दिल से दिल में राग जगाए, उसमें वो मदिरा हो ,
अमृत से संतृप्त हो या रब, तेरा तेज़ भरा हो,

                                    गोपालजी
                                 9455708506  

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