जिंदगी में अपनी से ज्यादा तुम्हारी गलतियों की सज़ा भोगते हैं हम, हमारे पैदा होने की वज़ह, ज़गह, परिवेश, संम्पन्नता, सुसंस्क्रतता और परवरिश का निर्धारण तुम करते हो हम नहीं । और कितने भोले हैं हम कि इसे अपने पूर्वजन्मों का फल मान कर संतोष कर लेते हैं । लेकिन कैसा न्याय है ऐ, कि गलती मालूम नही और
भोगनी है सज़ा । क्योंकि तुम हो इस विशाल सत्ता के मालिक, हमें तुमसे पूंछने का हक नही और ज़वाब देना तुम्हारी ज़िम्मेदारी नहीं । अपनी अपनी कहानी गढ़ कर बहलाते हैं ख़ुद को और भोगते हैं इस जिंदगी को हम । और कितनी विडम्बना है, जिंदगी चाहे कितनी भी कष्टदायी हो कितना प्रेम करते है इससे हम । रिस्ते हुए घावों और बहते हुए अश्कों के बीच भी प्यारी लगती है जिंदगी । " गोपालजी "
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