मंगलवार, 12 जनवरी 2010

कल का सच

तहस-नहस अपने उपवन को, हमने ही कर डाला है ,
काटा है खुद उस उपवन को, जिसने हमको पाला है .

कटते वृक्षों का रुदन शब्द हमने न सुना, पर था तो वो ,
विस्तीर्ण गगन सा फैला वन, काटा हमने कल था वो जो .
 कल -कल करतीं बहती नदियाँ, हमने ही प्रदूषित कर डालीं ,
उन्मुक्त पवन का अल्हड़पन, कर दिया प्रदूषित था वो जो .

अपने ही खुनी खंज़र से, इस प्रकृति पे हमने वार किये ,
क्रूरतम प्रहारों पर उसने , माँ  बनकर अपने  ओठ सिये .

रिसते घावों की व्याकुलता , सूनामी से वह व्यक्त करे ,
नव-सृजन को वह भी आतुर है, मानवता से अभिव्यक्त करे .

हम मात्र द्रवित ना हो जाएँ , कष्टों से सहोदर के अपने ,
उस गर्भ का दर्द भी पहचाने , जो पूर्ण करे सबके सपने .

कभी भुज तो कभी सुनामी है , इस धरा की पीड़ा की भाषा ,
नवरचना का संकेत है ऐ,  नव-सृजन की आतुर अभिलाषा .
वर्ना वह दिन अब दूर नहीं जब प्रलय से हम मिट जायेंगे ,
हम हों सचेत बस कम्पन से जब हिले धरा तोला-माशा .

                                                  गोपालजी .......

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