शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

सत्य का धरातल

दुर्योधन, उदास और क्लांत 
मन में झंझावत, लब शांत ,
नहीं दे सका सुकूं पत्नी का आलिंगन ,
नर्तकियों का सुर-वंदन,  
मनोबल है जिंदा, पर टूटा है विश्वास,
क्या इश्वर,
वास्तव में आज नहीं है हमारे पास,
यदि है
तो क्या हो गयी भूल,
क्यों चुभ रहा है हर रोज़ 
एक नयी हार का शूल,     
मैंने तो मात्र
अपने पिता के अपमान का प्रतिघात किया,
सेना की विशालता से भी सिद्ध है 
अधिकों ने मेरा साथ दिया,  
अपनी पत्नी द्यूत में हारने वाले धूर्तों को 
कृष्ण का सरक्षण,
बलराम के आदेश के विरुद्ध 
पांडवों की रक्षा प्रतिक्षण ,
भविष्य द्रष्टा कहते थे ऐसा कलयुग में होना है,
असत्य को विजयी सत्य को धरातल खोना है,
लगता है कलयुग अभी से ही आ गया
वर्ना ऐसा न होता,
असत्य यूँ न पूजा जता 
सत्य न अपना शौर्य खोता,


"   दूर कहीं घड़ियाल घंटा बजा रहा है ,
    मुर्दा हुए जिन्दों को शायद बता रहा है .
    नैतिक पतन की चादरें लेटे हो ओढ़ कर, 
    सहमें डरे से सोये हो घुटनों को मोड़कर,
    गर्तों की राह जाओ ना तुम सत्य छोड़कर, 
    वर्ना समय ही सत्य है रख देगा तोड़कर ,
    हर गम को हर ख़ुशी को निर्विकार परखना,
    ग़र संग चले चिर-नींद तक चिर-सत्य समझना ,  "  


                       " गोपाल जी "  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें