रविवार, 31 जनवरी 2010

समर्पण

धोबी की बढती बेरोज़गारी से बेखबर
उसकी मुफलिसी से बेअसर
दूसरों के मैल ढोकर
गधा पुण्य कमा रहा है,
देख सिमटता रोज़गार
धुलाई के नए यंत्रों से बेज़ार
वक़्त को गालियाँ चुभोकर
धोबी गर्त में धंसा जा रहा है,

सुखा ढला हुआ मर्द
ऊपर से गधे के पोषण का दर्द
धोबी का दिल कचोट रहा था,
पर गधा मस्त
गर्द में लोट रहा था,

बढ़ते-घटते  भार से निर्विकार
धोबी जो दे, करके दिल से स्वीकार
समर्पण की मुद्रा में
गधा धरती निहार रहा है,
गाली भी पाकर
चाबुक भी खाकर
हमसफ़र धोबी से
हर क़दम मिलाकर
मस्ती में
योनि यह जिए जा रहा है

काटो तो खून नहीं
रोटी दो जून नहीं
धंसे हुए नैन
जुगाड़ में बेचैन
खुद के लाले
गधे को पाले
धोबी हरी घास में अकल चरा रहा है,
अपने बुने जालों में
सूदियों की चालों में
नख से नाक तक फंसा जा रहा है,

फर्क है समर्पण का
दाता को तर्पण का
गधा सर झुकाए
निश्चिन्त खड़ा है,
टूटने को तैयार
झुकना पर नागवार
जकड़ा अहंकार में
धोबी अड़ा है

गधा, गधा है
मुटा रहा है   
आदमी गधा नहीं है
मरा जा रहा है

       " गोपालजी "

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